आत्मिक स्नेह
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"अम्मा! आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।" डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते ही अपनी साईकिल रोक कर कहा।
बूढ़ी अम्मा ने जैसे ही सुना उन्होंने अपने आँखों पर चढ़े चश्मे को उतार अपने आँचल से साफ कर वापस पहना। उनकी बूढ़ी आँखों में अचानक एक चमक सी आ गई। वह बोली,"बेटा! पहले जरा बात करवा दो।"
अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से डाकिये की ओर देखा था लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा और कहा, "अम्मा! इतना समय नहीं रहता मेरे पास कि हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूँ।"
लेकिन अम्मा उससे प्रार्थना करने लगी, "बेटा! हर बार तुम बात करा दिया करते हो। बस थोड़ी देर की ही तो बात है। इस बार भी करा दो।"
"अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!" यह कहते हुए डाकिये ने रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल किया और कहा, "लो अम्मा! बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना, मेरे पैसे लगते हैं।" यह कह उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया।
डाकिये के हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल पूछती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। बूढ़ी अम्मा के झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।
"पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!" यह कहते हुए उस डाकिये ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए। रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया।
"अब क्या हुआ अम्मा?"
"यह सौ रुपए रख लो बेटा!"
"क्यों अम्मा?" डाकिये ने आश्चर्य से पूछा।
"हर महीने रुपए लाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो, कुछ तो खर्चा तुम्हारा होता होगा ना!"
"अरे नहीं अम्मा! रहने दीजिए।"
वह लाख मना करता रहा, लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहाँ से वापस जाने को मुड़ गया।
अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।
वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहाँ से आगे बढ़ा ही होगा कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था। मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ।
"भाई साहब आप यहाँ कैसे? आप तो इस समय अपनी दुकान पर होते हैं ना?"
"मैं यहाँ किसी से मिलने आया था! लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है।"
रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई।
"जी पूछिए भाई साहब!" डाकिये ने कहा।
"भाई! आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?"
"मैंने क्या किया है भाई साहब?"
रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।
"हर महीने आप इस अम्मा को अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए मुझे भी रुपए देते हैं! ऐसा क्यों?"
रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया सकपका गया, मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो, लेकिन अगले ही पल उसने सफाई देते हुए कहा, "मैं रुपए इन्हें नहीं, अपनी अम्मा को देता हूंँ।"
"मैं समझा नहीं?" रामप्रवेश उस डाकिये की बात सुनकर हैरान हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा, "इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा को हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।"
उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश की जिज्ञासा बढ़ गई। "कैसे चिट्ठी? क्या लिखा था उस चिट्ठी में?" रामप्रवेश ने पूछा।
"संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई! अब वह नहीं रहा।"
"फिर क्या हुआ भाई?"
रामप्रवेश की जिज्ञासा बढ़ गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, "हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई! मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।"
"लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?"
"मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को! लेकिन अब मेरी अम्मा भी नहीं रहीं। अब यही मेरी अम्मा हैं।" यह कहते हुए उस डाकिये की आँखे भर आई।
हर महीने डाकिये से रुपए लेकर अम्मा का बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिये का एक अजनबी बूढ़ी अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया। फिर कुछ पल बाद बोला, "मुझे बेटा बनने के लिए रुपये मत दिया करो। बल्कि हर महीने पाँच सौ रुपये मुझसे ले लिया करो।" और यह कहकर कुछ रुपये उसने डाकिए की मुट्ठी में पकड़ा दिए।
साभार - अज्ञात लेखक
(केशव राम सिंघल द्वारा संकलित और सम्पादित)
चित्र प्रतीकात्मक - साभार इंटरनेट
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